वन और पर्यावरण
उत्तराखंड के दूर-दराज़ गाँव में, जहाँ चारों ओर जंगल फैला हुआ था, वहाँ के लोग हमेशा अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक थे। गाँव के पास एक घना जंगल था, जिसे लोग 'सदाबहार वन' के नाम से जानते थे। यह वन केवल पेड़ों और जीव-जन्तुओं का घर नहीं था, बल्कि उस गाँव के लिए जीवन की धारा भी था। वहाँ बहती नदी, ताजगी भरी हवा, और चहचहाते पक्षी इस जंगल की खासियत थे।
गाँव का प्रमुख 'रघुवीर सिंह' हमेशा से इस बात पर जोर देता था कि जंगल हमारी धरोहर है। वह गाँव वालों को पर्यावरण संरक्षण की अहमियत समझाता और उन्हें पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करता। रघुवीर के नेतृत्व में गाँव के लोग हर साल वनों के नष्ट होते हिस्सों में पौधे लगाते थे। गाँव में एक नियम भी था कि हर नवजात बच्चे के जन्म पर कम से कम एक पौधा जरूर लगाया जाए।
परंतु, एक साल ऐसा आया जब जंगल पर संकट मंडराने लगा। जंगल के कुछ हिस्सों में आग लग गई, जिससे बहुत से पेड़ और वन्य जीवों का नुकसान हुआ। गाँव में भय का माहौल फैल गया, क्योंकि वे जानते थे कि अगर जंगल खत्म हो गया तो उनके जीवन पर सीधा असर पड़ेगा। बारिश कम हो जाएगी, फसलों का उत्पादन घट जाएगा, और गाँव के पानी का स्रोत भी सूख सकता है।
रघुवीर ने सभी गाँववालों को इकट्ठा किया और एक योजना बनाई। उन्होंने सभी से आग बुझाने के उपाय और जंगल के पुनर्वास के लिए सामूहिक प्रयास करने का आग्रह किया। गाँव के हर व्यक्ति ने इस कार्य में योगदान दिया। कुछ लोग दिन-रात जंगल की निगरानी करते, जबकि अन्य लोग पौधारोपण और जल संरक्षण के काम में जुट गए। बच्चों ने भी छोटे-छोटे पौधे लगाए और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी ली।
आखिरकार, गाँव वालों की मेहनत रंग लाई। वन का एक बड़ा हिस्सा फिर से हरा-भरा हो गया, और वहाँ के जानवर भी वापस लौट आए। गाँव वालों को यह एहसास हुआ कि जंगल केवल एक संसाधन नहीं है, बल्कि उनके जीवन की धुरी है। वे समझ गए कि अगर उन्हें अपने भविष्य को सुरक्षित रखना है, तो पर्यावरण की देखभाल करना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए।
इस घटना के बाद, गाँव वालों ने हर साल एक विशेष दिन 'वन संरक्षण दिवस' के रूप में मनाना शुरू किया। उस दिन वे और भी पौधे लगाते और अपने बच्चों को पर्यावरण की रक्षा के महत्त्व के बारे में सिखाते।
यह कहानी इस बात का प्रतीक है कि यदि हम अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए समय रहते कदम उठाएँ, तो प्रकृति हमें उसका फल अवश्य देती है। By: Akhilesh kumar