संविधान और न्याय: भारत की कानूनी यात्रा
भारत का संविधान दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की नींव है, जो न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर आधारित है। 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ यह संविधान भारत की कानूनी यात्रा का प्रतीक है, जो औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद एक नई शुरुआत का संकेत देता है। इसकी रचना में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की भूमिका प्रमुख रही, जिन्होंने संविधान सभा की अध्यक्षता की। 26 नवंबर 1949 को अपनाए गए इस दस्तावेज में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं, जो अब संशोधनों के साथ विस्तारित हो चुकी हैं। संविधान न केवल कानूनी ढांचा प्रदान करता है, बल्कि न्याय की अवधारणा को मजबूत करता है, जहां हर नागरिक को समान अधिकार मिलते हैं।
भारत की कानूनी यात्रा प्राचीन काल से शुरू होती है। मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में न्याय व्यवस्था के उल्लेख मिलते हैं, जहां राजा को न्याय का संरक्षक माना जाता था। मध्यकाल में मुगल और सुल्तान काल में इस्लामी कानून प्रभावी थे, जबकि ब्रिटिश शासन ने कॉमन लॉ सिस्टम की स्थापना की। 1858 के बाद इंडियन पीनल कोड (IPC) और सिविल प्रोसीजर कोड जैसे कानून बने, जो आज भी प्रासंगिक हैं। स्वतंत्रता के बाद संविधान ने इन कानूनों को भारतीय मूल्यों के अनुरूप ढाला। अनुच्छेद 14 से 32 तक मौलिक अधिकारों का वर्णन है, जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार सुनिश्चित करते हैं। अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है, जो न्यायपालिका द्वारा विस्तारित रूप से व्याख्या किया गया है।
न्यायपालिका भारत के संवैधानिक ढांचे का तीसरा स्तंभ है, जो कार्यपालिका और विधायिका की जांच करती है। सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 1950 में हुई, जो मूल अधिकारों का संरक्षक है। उच्च न्यायालय और जिला अदालतें न्याय की पहुंच को सुनिश्चित करती हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता अनुच्छेद 50 द्वारा संरक्षित है, जो राज्य को निर्देश देता है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाए। केसारी सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1973) जैसे मामलों में न्यायपालिका ने संविधान की मूल संरचना सिद्धांत की स्थापना की, जो संसद के संशोधन अधिकार को सीमित करता है। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) मामले ने चुनावी प्रक्रियाओं में न्याय सुनिश्चित किया।
समय के साथ भारत की कानूनी यात्रा में कई चुनौतियां आईं। आपातकाल (1975-1977) के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन एक काला अध्याय था, लेकिन ADM जबलपुर मामले की समीक्षा ने न्यायपालिका की भूमिका को मजबूत किया। 1980 के दशक में पर्यावरण न्याय की अवधारणा उभरी, जैसे भोपाल गैस त्रासदी मामले में। 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण ने कॉर्पोरेट कानूनों को प्रभावित किया, जबकि महिला अधिकारों में निर्भया मामले (2012) ने यौन हिंसा कानूनों को सख्त बनाया। हाल के वर्षों में आधार मामले (2018) ने गोपनीयता को मौलिक अधिकार घोषित किया, जबकि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद (2019) ने धार्मिक सद्भाव और न्याय की परीक्षा ली।
आज भारत की कानूनी व्यवस्था में डिजिटल चुनौतियां जैसे साइबर अपराध और डेटा गोपनीयता प्रमुख हैं। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 और व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक इन मुद्दों को संबोधित करते हैं। हालांकि, न्याय में देरी एक बड़ी समस्या है, जहां लाखों मामले लंबित हैं। न्यायिक सुधार जैसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की असफलता ने कॉलेजियम प्रणाली को बहस का विषय बनाया। ग्रामीण क्षेत्रों में न्याय की पहुंच बढ़ाने के लिए लोक अदालतें और ई-कोर्ट प्रभावी साबित हो रही हैं।
संविधान और न्याय की यह यात्रा भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाती है। यह न केवल अतीत की सीखों से सीखता है, बल्कि भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार रहता है। न्याय सबके लिए समान होना चाहिए, जैसा कि संविधान की प्रस्तावना में 'न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक' का वादा है। भारत की कानूनी यात्रा निरंतर विकास की कहानी है, जहां संविधान न्याय का प्रकाशस्तंभ बना हुआ है। (Written By: Akhilesh Kumar)


