न्याय में देरी: भारतीय अदालतों की सच्चाई
भारतीय न्याय व्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक न्याय प्रणालियों में से एक है, लेकिन यह 'न्याय में देरी' की समस्या से बुरी तरह जकड़ी हुई है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमणा ने कहा था कि "न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है।" आज देश में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से कई दशकों से अदालतों में धूल फांक रहे हैं। यह स्थिति न केवल पीड़ितों के अधिकारों का हनन करती है, बल्कि पूरे समाज में विश्वास की कमी पैदा करती है। आइए, इस समस्या की जड़ों, प्रभावों और समाधान पर विचार करें।
लंबित मामलों का भयावह आंकड़ा
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, अक्टूबर 2025 तक निचली अदालतों में 4.5 करोड़, उच्च न्यायालयों में 60 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में 80 हजार से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से 70% से अधिक मामले 5 वर्ष से पुराने हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्य सबसे अधिक प्रभावित हैं। एक सिविल मुकदमा औसतन 10-15 वर्ष और आपराधिक मामले 5-7 वर्ष तक चलते हैं। 1987 में शुरू हुआ 'भोपाल गैस त्रासदी' मामला आज भी पूरी तरह सुलझा नहीं है। ऐसे उदाहरण बताते हैं कि न्याय की गति कितनी धीमी है।
देरी के प्रमुख कारण
इस समस्या की जड़ें गहरी हैं। पहला कारण न्यायाधीशों की कमी है। लॉ कमीशन की 120वीं रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर मात्र 21 न्यायाधीश हैं, जबकि अमेरिका में 107 और ब्रिटेन में 51 हैं। दूसरा, मुकदमों की बढ़ती संख्या। हर वर्ष 3-4 करोड़ नए मामले दर्ज होते हैं, लेकिन निपटारे की दर मात्र 2 करोड़ है। तीसरा, बार-बार तारीखें। वकीलों की हड़तालें, गवाहों का न आना, दस्तावेजों की कमी और न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता के कारण एक मामले में सैकड़ों तारीखें लग जाती हैं।
चौथा, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा। कई अदालतों में कमरे, स्टाफ और तकनीकी सुविधाओं की कमी है। पांचवां, राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार। कुछ मामलों में दबाव या रिश्वत के कारण फैसले लटक जाते हैं। छठा, पुराने कानून। भारतीय दंड संहिता (IPC) और सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) जैसे कानून 19वीं सदी के हैं, जो आधुनिक जरूरतों से मेल नहीं खाते।
समाज पर गहरा प्रभाव
न्याय में देरी का सबसे बड़ा शिकार गरीब और मध्यम वर्ग होता है। अमीर लोग महंगे वकील और त्वरित सुनवाई का प्रबंध कर लेते हैं, लेकिन आम आदमी वर्षों इंतजार करता रहता है। इससे अपराधियों का मनोबल बढ़ता है। बलात्कार, हत्या जैसे गंभीर मामलों में भी दोषी वर्षों तक जमानत पर घूमते रहते हैं। आर्थिक विकास पर भी असर पड़ता है। विदेशी निवेशक भारतीय अदालतों की धीमी गति से डरते हैं, क्योंकि संपत्ति विवाद या अनुबंध उल्लंघन के मामले दशकों तक लटके रहते हैं। विश्व बैंक की 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' रिपोर्ट में भारत इस पैमाने पर कमजोर रहा है।
समाधान की दिशा में कदम
समाधान संभव है, यदि इच्छाशक्ति हो। पहला, न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना। सरकार ने 2023 में 10,000 नए न्यायिक पदों की घोषणा की, लेकिन इसे तेजी से लागू करना जरूरी है। दूसरा, तकनीकी उपयोग। ई-कोर्ट प्रोजेक्ट को मजबूत कर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, डिजिटल फाइलिंग और AI आधारित केस मैनेजमेंट अपनाना चाहिए। तीसरा, वैकल्पिक विवाद निपटारा (ADR)। मध्यस्थता, सुलह और लोक अदालतों को प्रोत्साहित करना। 2024 में लोक अदालतों ने 1.5 करोड़ मामले निपटाए।
चौथा, कानूनी सुधार। पुराने कानूनों को सरल बनाना और समयबद्ध सुनवाई अनिवार्य करना। पांचवां, वकीलों और पुलिस की जिम्मेदारी। फर्जी मामले दाखिल करने वालों पर जुर्माना और पुलिस जांच में तेजी लाना। छठा, जन जागरूकता। लोगों को छोटे विवाद अदालत के बाहर सुलझाने की शिक्षा देना।
निष्कर्ष: न्याय की गति बढ़ाना जरूरी
न्याय में देरी भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी है। यह न केवल व्यक्तियों का अधिकार छीनती है, बल्कि राष्ट्र की प्रगति में बाधा बनती है। सरकार, न्यायपालिका और समाज को मिलकर काम करना होगा। यदि हम समयबद्ध न्याय सुनिश्चित करें, तो भारत वास्तव में 'विश्व गुरु' बन सकता है। न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी है, लेकिन हमारे कदमों में देरी नहीं होनी चाहिए।
(Written By: Akhilesh Kumar)


