प्रेमचंद की ‘पूस की रात’: 100 साल बाद भी उतनी ही सच्ची मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी “पूस की रात” पहली बार दिसंबर 1925 में “माधुरी” पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

प्रेमचंद की ‘पूस की रात’: 100 साल बाद भी उतनी ही सच्ची

मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी “पूस की रात” पहली बार दिसंबर 1925 में “माधुरी” पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस साल उसे पूरे सौ वर्ष हो गए। एक सदी बीत जाने के बावजूद यह कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक, उतनी ही कष्टदायी और उतनी ही सच्ची लगती है जितनी अपने समय में लगी थी। शायद इसलिए कि भारत के गाँवों में बसता है और गाँव आज भी उतने ही उपेक्षित, उतने ही गरीब और उतने ही असहाय हैं जितने प्रेमचंद के ज़माने में थे।

कहानी का नायक हल्कू एक गरीब किसान है। उसके पास न गर्म कपड़े हैं, न कर्ज चुकाने के पैसे, न ही ठंड से बचने का कोई उपाय। फिर भी उसे अपनी छोटी-सी खेत की रखवाली के लिए पूस की रात में खेत पर सोना पड़ता है। उसकी पत्नी मुन्नी उसे समझाती है कि खेत बेच दो, कर्ज चुका दो, मजदूरी कर लेंगे। लेकिन हल्कू का किसान-मन इसे स्वीकार नहीं कर पाता। आखिर में वह खेत पर जाता है, अलाव जलाता है, कुत्ते जनरल के साथ ठंड से लड़ता है और अंत में हार मानकर फसल को जानवरों के हवाले छोड़ देता है। सुबह जब वह घर लौटता है तो मुन्नी से कहता है, “अब चिंता खत्म, अब मजदूरी करके पेट पालेंगे। यह स्वीकारोक्ति नहीं, हार है। किसान की सदी पुरानी हार।

प्रेमचंद ने इस छोटी-सी कहानी में भारतीय ग्रामीण जीवन की पूरी त्रासदी समेट दी है। महाजन का कर्ज, फसल की बर्बादी, ठंड से मौत, भूख, मजबूरी और सबसे बड़ी बात—किसान का अपने खेत से गहरा भावनात्मक लगाव जो उसे बार-बार मरने पर मजबूर करता है। ये सारी चीजें आज भी जस की तस हैं। नाम बदले हैं, तरीके बदल गए हैं, लेकिन हालात वही हैं। सहकारी बैंक आ गए, महाजन चले गए, पर कर्ज का फंदा और सख्त हो गया। कीटनाशक और उर्वरक के नाम पर नई कंपनियाँ आ गईं, लेकिन फसल बर्बाद होने का दर्द वही है। आत्महत्या की खबरें अब अखबारों की सुर्खियाँ बनती हैं, पहले गाँव में चुपचाप दफन हो जाती थीं।

“पूस की रात” सिर्फ एक कहानी नहीं, एक दस्तावेज है। यह साबित करती है कि साहित्य का सबसे बड़ा धर्म यथार्थ को सामने लाना है। प्रेमचंद ने कोई अतिरंजना नहीं की, कोई नारा नहीं लगाया, बस सादगी से एक रात का चित्र खींच दिया और उस चित्र में पूरा ग्रामीण भारत कैद हो गया। आज जब हम ट्रैक्टर, ड्रिप इरिगेशन और कृषि ऐप की बातें करते हैं, तब भी लाखों हल्कू रात को खेतों में ठिठुरते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब उनके पास कंबल की जगह प्लास्टिक की बोरी होती है और अलाव की जगह बीड़ी का टोटका।

सौ साल बाद भी यह कहानी इसलिए सच्ची लगती है क्योंकि हमने हल्कू को बचाने की कोई कोशिश नहीं की। नीतियाँ बनीं, योजनाएँ आईं, भाषण हुए, लेकिन उस रात की ठंड आज भी किसान के जिस्म में उतरती है। प्रेमचंद आज होते तो शायद यही कहानी फिर लिखते—बस जनरल कुत्ते का नाम बदल देते और अलाव की लकड़ियाँ महँगी बता देते। बाकी सब वही रहता।

इसलिए “पूस की रात” सिर्फ साहित्य की धरोहर नहीं, हमारी सामाजिक असफलता का आईना है। जब तक एक भी हल्कू पूस की रात में खेत पर ठिठुरेगा, यह कहानी जीवित और प्रासंगिक रहेगी। सौ साल पहले लिखी गई यह कहानी सौ साल बाद भी चीख-चीख कर कह रही है—किसान मर रहा है, कोई सुन रहा है?

(Written By: Akhilesh kumar)


 

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