पूर्णिमा की चाँदनी : प्रेम की अनंत कहानी पूर्णिमा की रात आती है तो ऐसा लगता है मानो आकाश ने अपनी सारी कोमलता एक चाँदी के थाल में सजा कर पृथ्वी पर उड़ेल दी हो।

पूर्णिमा की चाँदनी : प्रेम की अनंत कहानी

पूर्णिमा की रात आती है तो ऐसा लगता है मानो आकाश ने अपनी सारी कोमलता एक चाँदी के थाल में सजा कर पृथ्वी पर उड़ेल दी हो। चारों तरफ़ चाँदनी की चाँदनी फैल जाती है – पेड़ों की पत्तियाँ चाँदी की हो जाती हैं, नदियों का पानी दूधिया हो जाता है और हवा में एक मीठी-मीठी सुस्ती घुल जाती है। इस रात में प्रेम भी कुछ और ही हो जाता है – शब्दों से परे, स्पर्श से गहरा, समय से अनंत।

प्राचीन काल से ही पूर्णिमा को प्रेम का प्रतीक माना गया है। राधा-कृष्ण की लीला हो या शीरी-फरहाद की विरह-कथा, सभी की साक्षी पूर्णिमा की चाँदनी ही बनी है। कहते हैं जब राधा यमुना किनारे खड़ी होकर बाँसुरी की तान सुनती थीं, तो चाँद भी रुक कर देखने लगता था। चाँदनी में नहाई राधा की सखियाँ गीत गातीं – “चंदा ने पूछा सखी री, काहे को रोवे...” और उस गीत में डूबे प्रेम की गहराई आज भी हमारी रगों में दौड़ती है।

आधुनिक समय में भी पूर्णिमा की चाँदनी प्रेमियों की सबसे प्रिय गवाह बनी हुई है। शहरों की चकाचौंध से दूर, किसी गांव की छत पर, या समुद्र किनारे बैठे दो प्रेमी जब एक-दूसरे का हाथ थामे चाँद को देखते हैं, तो सारी दुनिया सिमट कर उनके बीच के उस छोटे से स्पर्श में आ जाती है। उस पल न कोई कल की चिंता रहती है, न आने वाले कल का डर। बस एक अनंत सन्नाटा होता है जिसमें सिर्फ़ दो दिलों की धड़कनें गूँजती हैं। चाँदनी उनके चेहरों पर पड़ती है और दोनों को एक-दूसरे में समा जाने का अहसास कराती है।

कवि लिखते हैं –

“पूर्णिमा की चाँदनी में तेरा चेहरा देखा,

तो लगा जैसे सारी कायनात मेरे पास आ खड़ी हुई हो।”

वैज्ञानिक कहते हैं कि पूर्णिमा की रात में समुद्र में ज्वार अधिक आता है क्योंकि चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नज़दीक होता है। लेकिन प्रेमी कहते हैं कि नहीं, ज्वार तो हमारे अंदर उठता है। दिल में एक ऐसी लहर उठती है जो सदियों से चली आ रही प्रेम की धारा से जुड़ जाती है। उस रात प्रेम शारीरिक नहीं रह जाता, वह आत्मिक हो जाता है। दो आत्माएँ एक-दूसरे में विलीन होकर एक हो जाती हैं।

कभी-कभी प्रेम अधूरा भी रह जाता है। कोई एक चला जाता है, कोई दूर देश चला जाता है, लेकिन पूर्णिमा की चाँदनी हर बार लौटकर आती है और याद दिलाती है कि प्रेम कभी खत्म नहीं होता। वह बस रूप बदल लेता है। विरह में भी वह चाँदनी आँखों में उतर आती है और आँसुओं को चाँदी का रंग दे देती है।

तो अगली पूर्णिमा आए तो ज़रा रुक कर देखना। उस चाँदनी में अपना प्रेम ढूँढना। चाहे वह किसी व्यक्ति में हो, प्रकृति में हो, या खुद के भीतर। क्योंकि पूर्णिमा की चाँदनी सिर्फ़ चाँद की रोशनी नहीं, प्रेम की अनंत कहानी का जीवंत पन्ना है – जो हर बार नया लिखा जाता है, फिर भी कभी पुराना नहीं होता।

(Written By: Akhilesh Kumar)


 

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