अनुच्छेद 13: मौलिक अधिकारों से असंगत या उन्हें अल्पीकरण करने वाली विधियाँ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है।

अनुच्छेद 13: मौलिक अधिकारों से असंगत या उन्हें अल्पीकरण करने वाली विधियाँ

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है। इसे संविधान का "हृदय और आत्मा" कहा जाता है क्योंकि यह राज्य की किसी भी विधि को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकता है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इसे संविधान की सबसे महत्वपूर्ण धारा बताया था। अनुच्छेद 13 मूल रूप से विधायी और कार्यकारी शक्ति पर न्यायिक नियंत्रण (Judicial Review) की नींव रखता है।

अनुच्छेद 13 के चार उप-खंड हैं:

अनुच्छेद 13(1): संविधान के लागू होने से पहले बनी कोई भी विधि, यदि मौलिक अधिकारों से असंगत है, तो उस सीमा तक शून्य होगी।

अनुच्छेद 13(2): राज्य संविधान लागू होने के बाद कोई ऐसी विधि नहीं बनाएगा जो मौलिक अधिकारों को छीनती या अल्पीकरण करती हो। यदि ऐसी विधि बनाई गई तो वह भी उसी सीमा तक शून्य होगी।

अनुच्छेद 13(3): इसमें "विधि" की परिभाषा दी गई है – इसमें अधिनियम, अध्यादेश, आदेश, नियम, विनियम, रिवाज़ या प्रथा शामिल हैं।

अनुच्छेद 13(4): यह खंड 1976 के 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया था, जिसने कहा था कि संविधान संशोधन अनुच्छेद 13 के दायरे में नहीं आएगा (केसरी हिंदुस्तान मामले में यह प्रावधान असंवैधानिक घोषित हो चुका है)।

"शून्यता की दोहरी अवधारणा" (Doctrine of Severability & Eclipse)

सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में स्पष्ट किया है:

पूर्व-संविधान विधियों (Pre-constitution laws) पर "Doctrine of Eclipse" लागू होता है। यानी ऐसी विधि पूरी तरह मृत नहीं होती, बल्कि मौलिक अधिकारों के कारण "ग्रहण" लग जाता है। अगर बाद में संशोधन से वह असंगति दूर हो जाए, तो वह विधि पुनर्जीवित हो सकती है (भिकाजी नारायण ध्रुव बनाम मध्य प्रदेश, 1955)।

उत्तर-संविधान विधियों (Post-constitution laws) पर "Doctrine of Severability" लागू होती है। ऐसी विधि प्रारंभ से ही शून्य (void ab initio) होती है, जितनी दूर तक वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है (केशवानंद भारती मामले में पुनर्पुष्टि)।

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय

शंकरी प्रसाद (1951): संविधान संशोधन अनुच्छेद 13 के दायरे में नहीं आते।

गोलकनाथ मामले (1967): संविधान संशोधन भी "विधि" हैं, इसलिए मौलिक अधिकारों को छू नहीं सकते।

केशवानंद भारती (1973): संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को संशोधन से भी नष्ट नहीं किया जा सकता। इसने गोलकनाथ को सीमित करते हुए संसद को संशोधन की शक्ति दी, पर मौलिक अधिकारों की मूल संरचना को संरक्षित रखा।

मिनर्वा मिल्स (1980): 42वें संशोधन का वह हिस्सा जो अनुच्छेद 13(4) जोड़ता था, असंवैधानिक घोषित।

वर्तमान स्थिति

आज अनुच्छेद 13 न्यायिक पुनरावलोकन का सबसे मजबूत हथियार है। कोई भी कानून – चाहे संसद ने बनाया हो या राज्य विधानसभा ने – अगर अनुच्छेद 14, 19, 21 आदि का उल्लंघन करता है, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय रद्द कर सकते हैं। हाल के उदाहरण हैं – आधार मामले में गोपनीयता का अधिकार, सबरीमाला में प्रवेश, समलैंगिकता को अपराध मुक्त करने वाला धारा 377 का निर्णय आदि।

संक्षेप में, अनुच्छेद 13 भारतीय संविधान की आत्मा है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा को सर्वोपरि रखता है। यह विधायिका की सर्वोच्चता के स्थान पर संविधान की सर्वोच्चता स्थापित करता है। यही कारण है कि भारत को "न्यायिक सर्वोच्चता वाला लोकतंत्र" कहा जाता है। (Written By: Akhilesh Kumar)


 

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