जितिया का पावन व्रत: मातृत्व की अनंत भक्ति और संकल्प हिंदू धर्म में व्रत-उपवास केवल शारीरिक संयम ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति और पारिवारिक बंधन का प्रतीक होते हैं।

जितिया का पावन व्रत: मातृत्व की अनंत भक्ति और संकल्प

 हिंदू धर्म में व्रत-उपवास केवल शारीरिक संयम ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति और पारिवारिक बंधन का प्रतीक होते हैं। इनमें जितिया व्रत एक ऐसा पावन अनुष्ठान है, जो मातृत्व की अनंत भक्ति और संकल्प की मिसाल पेश करता है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी से नवमी तक मनाया जाने वाला यह तीन दिवसीय व्रत विशेष रूप से माताओं द्वारा अपने बच्चों की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और कल्याण की कामना से किया जाता है। इसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहा जाता है, जो मां-बच्चे के अटूट रिश्ते को मजबूत बनाता है। 2025 में यह व्रत 13 सितंबर को शनिवार को मनाया जा रहा है, जब माताएं निर्जला उपवास कर भगवान जीमूतवाहन की आराधना करती हैं।

 जितिया व्रत का महत्व असीम है। मान्यता है कि इस कठिन व्रत को श्रद्धापूर्वक निभाने वाली माता की संतान पर आने वाले सभी कष्ट, बाधाएं और असमय मृत्यु का भय हमेशा के लिए दूर हो जाता है। यह व्रत माताओं को न केवल संतान सुख प्रदान करता है, बल्कि उन्हें जीवन के कष्टों से जूझने की असीम शक्ति भी देता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल के मिथिला क्षेत्र में यह पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यहां माताएं अपने बच्चों के लिए न केवल उपवास करती हैं, बल्कि सामूहिक रूप से एकत्र होकर गीत गाती हैं, कथाएं सुनाती हैं और एक-दूसरे को प्रेरित करती हैं। यह व्रत मातृत्व की त्यागमयी भावना को दर्शाता है, जहां मां अपने बच्चों की खुशी के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देती है। धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि जितिया का पालन करने से संतान राजा जैसा सुखी और दीर्घायु जीवन प्राप्त करती है।

 व्रत की विधि सरल लेकिन कठोर है, जो माताओं के संकल्प की परीक्षा लेती है। पहला दिन सप्तमी तिथि को 'नहाय-खाय' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन माताएं प्रातः स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करती हैं और एक बार भोजन ग्रहण करती हैं। यह भोजन सात्विक होता है, जिसमें फल, दूध और पूरियां शामिल होती हैं। अगला दिन अष्टमी को मुख्य व्रत का होता है, जब निर्जला उपवास किया जाता है। पूरे दिन न तो जल ग्रहण किया जाता है और न ही भोजन। सूर्योदय से सूर्यास्त तक माताएं भगवान जीमूतवाहन, चील (गरुड़) और सियारिन की मूर्तियां बनाकर पूजा करती हैं। पूजा सामग्री में रोली, चंदन, फूल, फल, मिठाई, धूप-दीप और नैवेद्य शामिल होते हैं। शाम को जितिया कथा का पाठ किया जाता है। तीसरा दिन नवमी को पारण का होता है, जब सुबह सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत समाप्त किया जाता है। व्रत के दौरान सोना वर्जित है, और माताएं रात्रि जागरण कर प्रार्थना करती हैं।

 जितिया व्रत की कथा हृदयस्पर्शी है, जो भक्ति और बलिदान की शिक्षा देती है। मुख्य कथा राजा जीमूतवाहन से जुड़ी है। वे एक दानवीर राजा थे, जिन्होंने तपस्या के लिए जंगल त्याग दिया। एक बार गरुड़ ने एक नागकुमार को भक्षण करने के लिए चुना, लेकिन जीमूतवाहन ने स्वयं को उसके स्थान पर बलि चढ़ा दी। उनके त्याग से प्रसन्न हो गरुड़ ने उन्हें पुनर्जीवित किया और नागों को भक्षण न करने का वचन दिया। इस कथा से प्रेरित होकर माताएं संतान रक्षा का संकल्प लेती हैं। एक अन्य कथा चील और सियारिन की है। जंगल में रहने वाली चील और सियारिन ने व्रत रखा। भूख से व्याकुल सियारिन ने व्रत तोड़ा, जिससे उसके बच्चे मर गए, जबकि चील के बच्चे सुरक्षित रहे। यह कथा संयम और निष्ठा का संदेश देती है। महाभारत से जुड़ी कथा में द्रौपदी को भी इस व्रत की प्रेरणा मिली, जिससे पांडवों की रक्षा हुई।

 जितिया व्रत मातृत्व की अनंत भक्ति का प्रतीक है। आज के आधुनिक युग में भी यह महिलाओं को सशक्त बनाता है, उन्हें संकल्प की शक्ति सिखाता है। जब मां अपने बच्चों के लिए निर्जल उपवास करती है, तो वह न केवल धार्मिक कर्तव्य निभाती है, बल्कि परिवार की नींव को मजबूत करती है। यह व्रत हमें याद दिलाता है कि मां का आशीर्वाद ही जीवन का सबसे बड़ा वरदान है। आइए, इस पावन व्रत से प्रेरणा लें और मातृत्व के सम्मान को नमन करें। जितिया की अमृत बूंदें हर घर में सुख-शांति बरसाएं।( Akhilesh Kumar is the author.)


 

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